Monday, July 6, 2020

प्रेम परिभाषा

कुछ खिले अनखिले फूलों सी,
सावन की मतवाली झूलों सी,
फरवरी की ठंडी बहारों सी,
सावन की रिमझिम फुहारों सी,
कुछ कही अनकही आशा है,
प्रेम की यही परिभाषा है।

कान्हा की मधुर मुरली सी है,
नभ में चमचम बिजली सी है,
है बालपन का जोश भरा,
यौवन की तरह पगली सी है,
निश्छल एक प्रेम पिपाषा है,
प्रेम की यही परिभाषा है।

उन्माद भरा ये सागर है,
जल से लथपथ इक गागर है,
बस अपनेपन का भूखा है,
अमृतरस में डूबा मधुकर है,
इक तृष्णा है, इक भाषा है,
प्रेम की यही परिभाषा है।

अपनी तन्हाई का आलम क्या बताएँ हम,
बस एक सुबह होती है, बस एक शाम होती है।
पथरा गयी हैं आँखें उनके दीदार को,
उनके सजदे में ज़िन्दगी अब तमाम होती है।।

Wednesday, January 29, 2020

कभी हँसाती, कभी रुलाती है ज़िन्दगी,
हर पल नया तमाशा दिखाती है जिंदगी,
चलना भी हम चाहें गर अपने दम पर,
अपने इशारों पे नचाती है जिंदगी।
किसी की आंख का मोती, कभी नासूर होता है,
कभी जो पास था चेहरा, वो कितना दूर होता है,
जवानी में हजारों ख्वाइशें कुर्बान की जिसने,
बुढापे में वही चेहरा, क्यों मजबूर होता है।

कही लब पे गुज़ारिश है, कही लब पे सिफारिश है,
कही भीगी सी आंखों में, फकत मिलने की ख्वाइश है,
जो तेरे पास है कर ले उसी में सब्र ऐ बंदे,
मिलाया है, छुड़ाया है, ये सब उसकी ही साज़िश है।

Tuesday, August 25, 2015

उम्मीद

 कभी जो देखोगी मुड़ के, मुझको याद करोगी ना,
कभी यूँही चलते फिरते, मुझको याद करोगी ना.

सावन की ठंडी फुहारों में, जब याद तुम्हारी आती है,
अनभीगे से रह जाते हैं,  बूँदें जब तन छू जाती हैं,
उस वक़्त कभी तुम भी शायद, ठण्डी आँहें भरोगी ना
मुझको याद करोगी ना

पतझड़ का  मौसम जब आये, तपती सी हवाएं चलती हैं,
बिन पानी हम तो तड़पते हैं, होंठों पर पपड़ी पड़ती है,
गर तुम्हें हमारी खबर मिले, अश्रु बरसात करोगी ना
मुझको याद करोगी ना...

Thursday, June 14, 2012

जाने क्या क्या छूट गया

कुदरत का आंचल छूट गया,
वो प्यार का दामन छूट गया,
जाने क्या-क्या छूटा हमसे,
वो प्यारा बचपन छूट गया.

जब याद मुझे वो आता है,
दिल मन ही मन पछताता है,
पतझड़ में खड़ा मैं आज यहाँ,
वो रिमझिम सावन छूट गया.

ना भला था, ना बुरा था,
दिल दिल से सच्चा जुड़ा था,
अब हाय, मतलबी दुनिया में,
निर्दोष वो बंधन छूट गया.

ना चाह थी मुझको पाने की,
ना कुछ खोने का डर ही था,
अब आज की आपाधापी में,
वो कल का जीवन छूट गया.

Monday, October 31, 2011

जन नेता

एक पडोसी का लड़का, मुझसे आकर कहता है,
कौन है ये कुरते वाला जो, बगल में अपने रहता है.
मैंने कहा, ये जीव अजब सा, जन नेता कहलाता है,
जन के कण कण को ये बंदा, रूप बदल कर खाता है.

एक रूप है दीन-हीन सा, घर घर झोली फैलाता है,
दूजे रूप में ये बंदा, विकराल काल बन जाता है.
आये चुनाव तो चुपके से, जन प्रतिनिधि बन जाता है,
अगर कही से जीत गया तो, सर्पदंश दिखलाता है.

दंश लगा दे एक बार तो, मर जाए हम पड़े पड़े,
और हमारी लाशो पर वो, अपनी कमाई खाता है.
बाढ़, सूखा, अकाल पर, रोया नहीं जाता इस से,
हाँ पर, इस विषय पर, घडियाली  आंसू  बहाता है.

जो दिल में दया होगी तेरे, तू कभी नहीं ऐसा  बनना,
आज का चोर और रावण, जन नेता कहलाता है

कुछ अनछुए पन्ने