Friday, December 17, 2010

रास्ते की बात

समय के पथ पर चलता हूँ,
मैं अनजान रस्ता हूँ,
ना समझो तो पराया हूँ,
और समझ सको तो अपना हूँ.

है लगन अगर तो पार करो,
और नहीं लगन तो खड़े रहो,
या तो डूबो मझधारे में,
या बैठ किनारे पड़े रहो.

जो चाह तुम्हें कुछ पाने की,
तो आओ, मुझपे आगे बढ़ो,
यत्न करोगे, तो पाओगे,
बस विजय गीत का गान करो.

कुछ जीते हैं, कुछ हारे हैं,
और कुछ किस्मत के मारे हैं,
जो बैठे रहे, वो सिमट गए,
जो आगे बढे, मेरे प्यारे हैं.

ये समय चक्र यूँ चलता है,
और पथिक अनगिनत आते हैं,
हैं मंजिल पाते, वो अपनी,
हम यही खड़े रह जाते हैं.

है इतनी सी ये अपनी कथा,
बस तुमको आज सुनानी है,
मत बढ़ो तुम गैरों की डगर,
तुम्हें अपनी राह बनानी है.

Monday, November 29, 2010

परछाइयां

समय की जब टिक -टिक  सुनाई  देती  है ,
आँखों  में  जब  काल  की , छाया दिखाई  देती  है ,
तब  सोचते  हैं  हम , कि  क्या  लम्हा  गुज़र  गया ,
जो  ख्वाब  था  आँखों  में , आसुओं  में  उतर  गया ,
अब  ना  ख्वाब  बाकी  है , ना  एहसास  बाकी  है ,
जीना  तो  चाहे  हैं  हम , पर  अब  ना  सांस  बाकी  है ,
गुज़रे  हुए  लम्हे , जो  अफ़साने  ना  बन  सके ,
जो  टूटे  थे  प्याले , पैमाने  ना  बन  सके ,
और  उन्ही  टूटे  प्यालो  में , खुद  को  ढूंढता  हूँ ,
कौन  हूँ  मैं , उन  परछाइयों  से  पूछता  हूँ .

हरकारा

दूर कहीं जब नदिया में, कोई हरकारा गाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.

कभी तो सुख की बरखा लाये, कभी लाये दुःख की घटा,
कभी लाये ममता का आँचल, कभी किसी प्रेमी की वफ़ा.
आंधी आये, तूफाँ आये, वो कभी ना रुकने पाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.

कभी लाये होली की खुशियाँ, कभी ईद- दीवाली की,
कभी किसी बेटी की बिदाई, कभी चाह खुशहाली की.
दीन-दुखी हो या खुशहाल, सबके रंग में रंग जाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.

जग-जीवन के पद-चिह्नों पर, वह हरदम चलता रहता है,
दुःख हो कितना निज-जीवन में, वो हरदम बढ़ता रहता है.
सुख बांटो और दुःख बांटो तुम, यह अमर संदेस सुनाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.

Wednesday, September 22, 2010

सूरज का सन्देश

सूरज सुबह-सुबह आता है,
ये संदेशा लाता है;
नित-नित चलता है जो पथ पे,
मंजिल वो ही पाता है.
सदा चलो तुम, सदा बढ़ो तुम,
आगे बढ़ते जाओगे,
रही चाह जो यही निरंतर,
मंजिल तुम भी पाओगे.

Friday, June 4, 2010

wow !!! The blog is created now

जो स्याही थी वो सूख गयी, जो कलम कभी थी टूट गयी,
अपने रूठे तो यूँ रूठे, गजलें भी हमसे रूठ गयी.

गुज़रे हुए उन लम्हों से, गजलें हम फिर भी निकालेंगे,
जो पास बचा है ग़म शायद, हम गीत में उसको ढालेंगे.
पुरज़ोर हम अपनी यादो को, यूँ शब्दों में सुलगाएँगे,
ना धुंआ रहे, ना होगी राख, बस दिए दिए जल जायेंगे।

कुछ अनछुए पन्ने