जो स्याही थी वो सूख गयी, जो कलम कभी थी टूट गयी,
अपने रूठे तो यूँ रूठे, गजलें भी हमसे रूठ गयी.
गुज़रे हुए उन लम्हों से, गजलें हम फिर भी निकालेंगे,
जो पास बचा है ग़म शायद, हम गीत में उसको ढालेंगे.
पुरज़ोर हम अपनी यादो को, यूँ शब्दों में सुलगाएँगे,
ना धुंआ रहे, ना होगी राख, बस दिए दिए जल जायेंगे।