समय की जब टिक -टिक सुनाई देती है ,
आँखों में जब काल की , छाया दिखाई देती है ,
तब सोचते हैं हम , कि क्या लम्हा गुज़र गया ,
जो ख्वाब था आँखों में , आसुओं में उतर गया ,
अब ना ख्वाब बाकी है , ना एहसास बाकी है ,
जीना तो चाहे हैं हम , पर अब ना सांस बाकी है ,
गुज़रे हुए लम्हे , जो अफ़साने ना बन सके ,
जो टूटे थे प्याले , पैमाने ना बन सके ,
और उन्ही टूटे प्यालो में , खुद को ढूंढता हूँ ,
कौन हूँ मैं , उन परछाइयों से पूछता हूँ .
It is not a blog, it is a collection of thoughts, values, feelings and a little sense of humor(sometimes :-), coz it costs nothing to be happy).
Monday, November 29, 2010
हरकारा
दूर कहीं जब नदिया में, कोई हरकारा गाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
कभी तो सुख की बरखा लाये, कभी लाये दुःख की घटा,
कभी लाये ममता का आँचल, कभी किसी प्रेमी की वफ़ा.
आंधी आये, तूफाँ आये, वो कभी ना रुकने पाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
कभी लाये होली की खुशियाँ, कभी ईद- दीवाली की,
कभी किसी बेटी की बिदाई, कभी चाह खुशहाली की.
दीन-दुखी हो या खुशहाल, सबके रंग में रंग जाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
जग-जीवन के पद-चिह्नों पर, वह हरदम चलता रहता है,
दुःख हो कितना निज-जीवन में, वो हरदम बढ़ता रहता है.
सुख बांटो और दुःख बांटो तुम, यह अमर संदेस सुनाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
कभी तो सुख की बरखा लाये, कभी लाये दुःख की घटा,
कभी लाये ममता का आँचल, कभी किसी प्रेमी की वफ़ा.
आंधी आये, तूफाँ आये, वो कभी ना रुकने पाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
कभी लाये होली की खुशियाँ, कभी ईद- दीवाली की,
कभी किसी बेटी की बिदाई, कभी चाह खुशहाली की.
दीन-दुखी हो या खुशहाल, सबके रंग में रंग जाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
जग-जीवन के पद-चिह्नों पर, वह हरदम चलता रहता है,
दुःख हो कितना निज-जीवन में, वो हरदम बढ़ता रहता है.
सुख बांटो और दुःख बांटो तुम, यह अमर संदेस सुनाता है,
अपने चिर-परिचित परिजनों का, वो संदेसा लाता है.
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