कभी ख़ुशी की, कभी ग़म की,
धूप-छावं सी जैसी जिंदगी.
देख सको तो रूप भी है ये,
नहीं तो बस, बेबसी जिंदगी.
देखा है उनको भी ऐसे ही,
नन्ही सी है ख़ुशी जिंदगी,
मजबूरियाँ है फिर भी उन्हें,
कभी दुःख, कभी हँसी जिंदगी.
पलकें बिछाएं बैठे हैं,
कि मिल जाए वही जिंदगी,
जो हाथ आये, थोड़ा है,
फिर है ये, कैसी जिंदगी.
कभी सुना है, किस्सों में,
कि लगती है, परी जिंदगी,
देखा जो खुद के अक्स में,
कहाँ है वो, हसीं जिंदगी.
मिल जाए, जो मुक़द्दर है,
खो जाए, वो गयी जिंदगी,
हूँ मैं, खोने पाने से अलग,
जो मिल गयी, वही जिंदगी.
:)
ReplyDeleteहाँ, यही तो जिंदगी है. क्या खोया-क्या पाया, इसी हिसाब-किताब के चक्कर में कब निकल जाती है, पता ही नहीं लगता और हम इस खुबसूरत-सी जिंदगी की कद्र भी नहीं कर पाते. खोने-पाने के चक्कर में लोग ये भी भूल जाते हैं कि अगर उन्हें इतनी खुबसूरत जिंदगी मिली है तो उसकी कद्र करें.