Monday, October 31, 2011

जन नेता

एक पडोसी का लड़का, मुझसे आकर कहता है,
कौन है ये कुरते वाला जो, बगल में अपने रहता है.
मैंने कहा, ये जीव अजब सा, जन नेता कहलाता है,
जन के कण कण को ये बंदा, रूप बदल कर खाता है.

एक रूप है दीन-हीन सा, घर घर झोली फैलाता है,
दूजे रूप में ये बंदा, विकराल काल बन जाता है.
आये चुनाव तो चुपके से, जन प्रतिनिधि बन जाता है,
अगर कही से जीत गया तो, सर्पदंश दिखलाता है.

दंश लगा दे एक बार तो, मर जाए हम पड़े पड़े,
और हमारी लाशो पर वो, अपनी कमाई खाता है.
बाढ़, सूखा, अकाल पर, रोया नहीं जाता इस से,
हाँ पर, इस विषय पर, घडियाली  आंसू  बहाता है.

जो दिल में दया होगी तेरे, तू कभी नहीं ऐसा  बनना,
आज का चोर और रावण, जन नेता कहलाता है

छाया

मेरे जीवन तट पर ऐसे, दो वृक्षों की छाया है,
एक ने मुझे बनाया है, एक ने मुझे बसाया है.

रिश्ते

बादल की ज़रुरत क्या है, कोई पूछे रेगिस्तान से,
पानी की ज़रुरत क्या है, कोई पूछे किसी किसान से,
शायद ना किसी को होगी, अब इतनी ज़रुरत तेरी,
मुझको है ज़रुरत ऐसी, जैसी होंठों की मुस्कान से.

चाहा है तुम्हें हमने, जैसे लौ को परवाना,
परवाने से भी बढ़के, मैं हूँ तेरा दीवाना.
वो जलता है शमां में, मैं तुझमें ही जीता हूँ,
तुझसे मेरा है रिश्ता जैसे, चेहरे की पहचान से.

Sunday, October 23, 2011

गंगा की कथा

क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

कौन हैं वो, जो ऐसा जाल बिछाएँ हैं,
क्या वो, जो सत्ता पे नज़रें जमाएँ हैं,
या वो, जो ऊँची-ऊँची इमारतें बनाएँ हैं,

दूर हो रही हैं, पावन नदियाँ हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

मुझे वो दिन बचपन के याद आते हैं,
जब इन्ही तटों पर अपना बसेरा था,
गुज़रती थी शामें, इनकी लहरों में,
इनकी हवाओं में, अपना सवेरा था.

जाने कब छूट गयी, वो दुनिया हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

जाने कितने प्राणियों का, ये तारणहार थी,
कितनी नौकाएं थी, जिनका ये पतवार थी,
भेद ना करती थी, रंग रूप गुण दोष में,
तटस्थलियों की जीविका का आधार थी.

रूठ गयी है वो अब तन्हा हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

वो छठ का त्यौहार बड़ा याद आता है,
जब गंगा की तटों पर मेला लगता था,
आते थे दूर-दूर से, जनमानस दर्शन को,
हर चेहरा था पराया, पर अपना लगता था.

छूट गया है वो भी जलसा हमसे,
क्यों बिछड़ रही है, गंगा हमसे.

कुछ अनछुए पन्ने