Sunday, October 23, 2011

गंगा की कथा

क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

कौन हैं वो, जो ऐसा जाल बिछाएँ हैं,
क्या वो, जो सत्ता पे नज़रें जमाएँ हैं,
या वो, जो ऊँची-ऊँची इमारतें बनाएँ हैं,

दूर हो रही हैं, पावन नदियाँ हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

मुझे वो दिन बचपन के याद आते हैं,
जब इन्ही तटों पर अपना बसेरा था,
गुज़रती थी शामें, इनकी लहरों में,
इनकी हवाओं में, अपना सवेरा था.

जाने कब छूट गयी, वो दुनिया हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

जाने कितने प्राणियों का, ये तारणहार थी,
कितनी नौकाएं थी, जिनका ये पतवार थी,
भेद ना करती थी, रंग रूप गुण दोष में,
तटस्थलियों की जीविका का आधार थी.

रूठ गयी है वो अब तन्हा हमसे,
क्यों बिछड़ रही है गंगा हमसे,

वो छठ का त्यौहार बड़ा याद आता है,
जब गंगा की तटों पर मेला लगता था,
आते थे दूर-दूर से, जनमानस दर्शन को,
हर चेहरा था पराया, पर अपना लगता था.

छूट गया है वो भी जलसा हमसे,
क्यों बिछड़ रही है, गंगा हमसे.

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