समय की जब टिक -टिक सुनाई देती है ,
आँखों में जब काल की , छाया दिखाई देती है ,
तब सोचते हैं हम , कि क्या लम्हा गुज़र गया ,
जो ख्वाब था आँखों में , आसुओं में उतर गया ,
अब ना ख्वाब बाकी है , ना एहसास बाकी है ,
जीना तो चाहे हैं हम , पर अब ना सांस बाकी है ,
गुज़रे हुए लम्हे , जो अफ़साने ना बन सके ,
जो टूटे थे प्याले , पैमाने ना बन सके ,
और उन्ही टूटे प्यालो में , खुद को ढूंढता हूँ ,
कौन हूँ मैं , उन परछाइयों से पूछता हूँ .
शायद परछाइयां मुझे समझ आ जाती पहले, तो मैं भी कुछ हसीन लम्हे गुजार लेता.
ReplyDeleteमगर ए दोस्त अब आया समझ मै, यह वही थी जो तुमने दिखाया
जिसे मै अब तक समझ ना पाया , धन्यबाद :)