Monday, November 29, 2010

परछाइयां

समय की जब टिक -टिक  सुनाई  देती  है ,
आँखों  में  जब  काल  की , छाया दिखाई  देती  है ,
तब  सोचते  हैं  हम , कि  क्या  लम्हा  गुज़र  गया ,
जो  ख्वाब  था  आँखों  में , आसुओं  में  उतर  गया ,
अब  ना  ख्वाब  बाकी  है , ना  एहसास  बाकी  है ,
जीना  तो  चाहे  हैं  हम , पर  अब  ना  सांस  बाकी  है ,
गुज़रे  हुए  लम्हे , जो  अफ़साने  ना  बन  सके ,
जो  टूटे  थे  प्याले , पैमाने  ना  बन  सके ,
और  उन्ही  टूटे  प्यालो  में , खुद  को  ढूंढता  हूँ ,
कौन  हूँ  मैं , उन  परछाइयों  से  पूछता  हूँ .

1 comment:

  1. शायद परछाइयां मुझे समझ आ जाती पहले, तो मैं भी कुछ हसीन लम्हे गुजार लेता.

    मगर ए दोस्त अब आया समझ मै, यह वही थी जो तुमने दिखाया
    जिसे मै अब तक समझ ना पाया , धन्यबाद :)

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